शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

आम आदमी की पैरोकार पत्रिकाएं-1

‘युद्धरत आम आदमी’

रमणिका फाउंडेशन द्वारा ‘युद्धरत आम आदमी’ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया जाता है। आदिवासी, महिला, साम्प्रदायिक सद्भाव, जनवादी आन्दोलन पर तथा अनुवाद के क्षेत्रा में यह पत्रिका शोध-परक कार्य करती है।

इन मुद्दों पर अनेकानेक विशेषांक भी निकाले जा चुके हैं। यह हिन्दी की सम्मानित पत्रिका मानी जाती है।

इस के माध्यम से आदिवासी, दलित व महिला लेखकों की उत्कृष्ट रचनाओं को प्रकाशित होने का अवसर प्राप्त हुआ है। ये पत्रिका देश में आदिवासियों, दलितों व महिलाओं की स्थिति का एक आइना प्रस्तुत करती है। युद्धरत आम आदमी में दलित, आदिवासी, महिला तथा जनवादी लेखन से सम्बधित दो तिहाई सामग्री प्रकाशित होती है।

बिहार जनवादी लेखक संघ की मुख पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ अपने नए कलेवर और नए तेवर के साथ इक्कींसवीं सदी में दस्तक दे रही है। पत्रिका समय-समय पर अपने नए तेवर के लिए चर्चित भी रही है। यह महज दलितों की आवाज ही नहीं, बल्कि उनकी गाथा को एक आयाम देती हुई पत्रिका है। वैसे देखने में यह आया है कि ज्यादातर पत्रिकाओं ने आम आदमी की आवाज को उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन गहराई तक जाने का कहीं से भी प्रयास नहीं किया है। लेकिन इस पत्रिका ने आम आदमी को नई दिशा ही नहीं दी, बल्कि उन्हें अपने बौद्धिक विकास के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास का भी मार्ग प्रशस्त करने का अवसर प्रदान किया। उन्हें उनके इतिहास से भी परिचित कराया है। वास्तव में आम आदमी को वह चीजें सुलभ नहीं हो सकी हैं, जो कि उसकी बुनियादी जरूरत है। इसलिए पत्रिका उनकी बुनियादी जरूरतों की ओर भी ध्यान दे रही है। कहीं से ऐसा नहीं लगता कि दलित समाज वास्तविक मुक्ति नहीं चाहता, वह मुक्ति चाहता तो है, लेकिन उसे दिशा भी चाहिए।

दिशा देने का ही काम किया है ‘युद्धरत आम आदमी’ ने। दलित चेतना का कविता अंक, कहानी अंक, साहित्य अंक और सोच अंक ने एक नए प्रकार की शृंखला की शुरुआत की, जो शायद पत्रिकाओं के इतिहास में कभी नहीं हुआ। विशेषांकों की जो शुरुआत हुई वह फिर रुकी नहीं। इसमें दलित हस्ताक्षरों को खुलकर सामने आने का मौका मिला। सच यह भी है कि हिन्दी क्षेत्रा में आज दलित साहित्य काफी आगे बढ़ चुका है। वैसे देखा जाए तो महाराष्ट्र में चलने वाले आंदोलन से बहुत पहले हिन्दी क्षेत्रों में 1914 में ‘सरस्वती’ में छपी हीरा डोम की ‘एक अछूत की शिकायत’ कविता दलित साहित्य का उद्गम बिन्दु मानी जा सकती है। लेकिन दलित आवाजश् को जितना बुलंद ‘युद्धरत आम आदमी’ ने किया है, उतना किसी भी पत्रिका ने नहीं किया है। दलित की अपनी सोच है, अपनी धारणा है, अपना विश्वास है। यदि उस सोच, धारणा और विश्वास को सही रूप से निर्देशित नहीं किया गया, तो चीजें वहीं की वहीं रह जाएंगी। यही नहीं, पत्रिका ने हिन्दी भाषा को ही दलित कलम से समृद्ध नहीं किया है, बल्कि अहिन्दी भाषा को भी नई दिशा दी है।

सदस्यता के लिए सहयोग राशि
साधारण डाक: 80/-
रजिस्टर्ड/कोरियर: 140/-
आजीवन सदस्यता: 3000/-

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