सोमवार, 1 नवंबर 2010

‘आम आदमी’

इस ब्लॉग के माध्यम से आम आदमी बोलेगा। आम आदमी की अर्न्तआत्मा सरकार,नेता व अफसरों से अलग होती हैं। एक आम आदमी की मनोवेदना होती हैं कि आखिर वह क्यों नहीं हो पा रहा है,जो उसकी नजर में आसान हैं। एक आम आदमी की सोच किसी कानून कायदे अथवा प्रक्रिया से बंधी नही होती हैं। उसकी नजर में हर समाधान आसान होता है। वह मानता हैं कि सरकार,नेता व अफसरों की इच्छाशक्ति में ही कमी हैं। इसके विपरित सरकार,नेता व अफसरों को आम आदमी की सोच बेमानी लगती हैं। सरकारी कामकाज नोटशीट से शुरू होता हैं टिप्पणीयों के भंवर में बरसों-बरस तक उलझा रहता हैं।

टूटी सडके,खस्ता हाल बसें,बिजली की आंख मिचौली,महिनों से ख्रराब पडें हैंडपंप,राशन की दूकान पर लम्बी कतारें,बाजार में मिलावट,पुलिस की लेटलतिफी,सरकारी बाबू का घिरीयाना,मामूली सर्टीफिकेट के लिए दफ्तर दर दफ्तर चक्कर,सरकारी स्कूल में अध्यापक नहीं,आम रास्तों पर गंदगी के ढेर,आवारा पशुओं की चौराहों-बाजारों में धमाचौकडी,सरकारी दफ्तरों में छोटे-छोटे काम के लिए भी चाय-पानी का आलम और न जाने किन-किन हालातों से नहीं गुजरता आम-आदमी।

इन हालातों का झटपट समाधान भी आम आदमी के पास होता हैं। आइडिया तो वैसे भी हमारें देश में मुफ्त मिलता हैं। चाय की थडीयों पर जाइए। ओबामा से लेकर होरी तक की चर्चाएं,चटकारें और कयास लगाते लोग मिल जाएगें। इन्हीं जगहों पर सरकार,नेता व अफसरों को कोसने का सिलसिला भी चलता रहता हैं। यहीं से उजागर होती है आम आदमी की पीडा। उसी को शब्दों में बयान करने का प्रयास हैं यह ब्लॉग‘आम आदमी’।

मैनें पत्रकारिता क्षेत्र में काम करते हुए आम आदमी को काफी निकट से देखा और वहीं से अपने भीतर एक कॉमन मैन तैयार किया। जो मेरे राजनीतिक जीवन की शैशव अवस्था में भी मुझे झकझोरें रखता हैं। मुझे हर पल भय रहता हैं कि मेरे भीतर का आदमी खो न जाए,इसलिए उसे बस पकडे ही रखता हूॅ। जब-जब उसके सिर से पानी गुजरेगा। तब-तब वह बोलेगा जरूर और जब बोलेगा तो कहोगें कि बोलता हैं।

2 टिप्‍पणियां: